छप्पय छंद
विधा-छप्पय छंद (रोला-उल्लाला)
देवलोक की देन, सृष्टि अनुपम कहलाती।
करुण सौम्य रख भाव, छटा कमनीय दिखाती।।
सूर्य लालिमा आज, धरा की माँग सजाती।
ललित लहर सम तान, मोद से भू इठलाती।।
स्वर्णिम चूनर ओढ़ कर, प्रभा करे शृंगार है।
अद्भुत कल्पित रूप यह, मिला देव उपहार है।।
भौतिकता की सोच, रखे मानव मदमाता।
वृक्ष समूचे काट, दुष्ट दानव सुख पाता।।
उजड़ गए खग नीड़, वास का दर्द सताता।
नयन बहाते नीर, स्वार्थ अब नहीं सुहाता।।
दुष्कर्मी के पाप को, भोग रहा संसार है।
धन-वैभव की चाह में, भूल गया उपकार है।।
हरित धरा को रौंद, दैत्य अब दर्प दिखाते।
दया, धर्म को त्याग, द्वेष का पाठ पढ़ाते।।
भूले अपना धर्म, झूठ की राह सुझाते।
संहारक कर कर्म, दुष्ट जन नहीं लजाते।।
लोलुपता इतनी बढ़ी, बचा नहीं ईमान है।
चोला पहने संत का, भटक गया इंसान है।।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)