छन्द गीतिका
ज़िंदगी
जिंदगी भारी सभी को और लगती शूल-सी।
प्यार भी इससे बहुत है और है मक़बूल-सी।
ज़िंदगी बेहद अनोखी, है करिश्माई बहुत,
दूसरों की है नगीना और अपनी धूल-सी।
मस्त पहले प्यार-सी रंगीन दिखती है कभी,
ये किताबों में मिले है एक सूखे फूल-सी।
ठोककर मजबूत कितना भी लगाओ जोड़ तुम,
राह में है चरमराती, एक ढीली चूल सी।
जिंदगी शातिर महाजन, बांटती जी खोलकर,
और फिर करती वसूली, चौगुना महसूल-सी।
____________________________✍️अश्वनी कुमार
मक़बूल = मान्य, स्वीकृत
चूल = धुरी, केंद्र बिंदु
महसूल = अधिभार, कर