चौराहे पर….!
” युवा मन अकेला था,
चौराहे पर खड़ा…
जाना है पर ..किधर ,
यही सोच में पड़ा था…!
भीड़ की तादाद बहुत बड़ी थी,
किससे पूछूं मैं राह सही…
यही उलझन में फंसा था…!
न जान, न किसी से कोई पहिचान…
कौन..? बतायेगा राह सही,
लगाऊं कैसे मैं, कोई अनुमान…!
यही चिंतन में….
एक किनारे पर खड़ा था…!
सूरज की तपन से…
स्वेद-जल (पसीना ) टपक रहा था…!
एक सज्जन से पूछा मैंने :
” यह कौन-सा चौक है..? ”
उसने कहा :
” भाई जी…! विजय-पथ.. ” ।
मैंने अंतर्मन से कहा :
” वाह क्या बात है…! ”
काश..! यहीं से शुरू हो जाता…
अपना भावी-जीवन रथ…! ”
” सहसा किसी ने पूछा :
‘ अरे ओ बाबू जी..! ,
कहां जाना है..? कुछ मदद करूँ । ‘
आवाज दे…
कुछ ही दूरी पर ,
पीछे एक हाड़-मांस (वृद्ध) खड़ा था…!
मैंने सोचा कि…
क्या अभी से पिछे मुड़ना उचित है…
फिर गंतव्य की ओर…
आगे कैसे बढ़ना है…!
पुनः एक विचार आया अंतर्द्वंद से…
‘ हर एक आगे कदम बढ़ने में ,
एक पीछे कदम का साथ होता है…! ‘
मैं पीछे आया…
उस हाड़-मांस, पगड़ी-धर…
लठधर ( लकड़ी की छड़ी ) के पास,
होकर कुछ उदास…
ये क्या बतायेगा…
मुझे राह सही, कब से यहीं खड़ा है…!
खुद एक छड़ी के सहारे….
जो यहीं पर तब से पड़ा है…!
उसने कहा :
‘ बैठ बाबू जरा.. ले थोड़ा पानी पी,
इतना क्यों उदास है… ‘
‘ कहां जाना है..? ‘
‘ मुझे मालूम है.. ,
किसी को यहां नहीं रहना है…! ‘
मैंने कहा :
‘ बाबा धन्यवाद…!! ,
मुझे एक सफल राही बनना है…! ‘
‘ किस ओर ( राह ) चलूं…
यहां तो भीड़ बहुत है…! ‘
‘ इतनी तादाद में…
अपना कोई चित्-परिचित भी नहीं है…! ‘
” बाबा ने मुस्कुराते बोला :
‘ बाबू जी…!
मैं हूँ एक अनपढ़-अंगूठा छाप, गंवार…! ‘
‘ तुम हो पढ़ा-लिखा होशियार… ‘
‘ वैज्ञानिक युग के कर्णधार….! ‘
मैं…
‘ तुम्हें राह कौन-सा बताऊं….
‘ तुम्हारे चक्षु के दीप, कैसे मैं जलाऊं…!”
मैंने कहा :
‘ वो तो कागज पर अंकित…
कुछ उपाधियां है…! ‘
जो किसी संकट की आंधियों संग…
उड़ जाती है…!
अगर किसी ने जकड़ कर पकड़ ली हो तो…
हाथ पर रखी हुई, टुकड़े-टुकड़े हो…
इधर-उधर बिखर जाती है…!
शायद…!
‘ किसी के अनुभव का साथ मिल जाए तो…
ये जीवन निराली हो और संवर जाती है…! ‘
बाबा जी…! मेरी बातें सुन कहने लगा :
‘ बाबू तुम तो बहुत गुणी बातें करते हो… ‘
‘ आधुनिकता के इस युग में भी…
इतनी सुदृढ़ और सुंदर विचार रखते हो…! ‘
फिर बाबा जी ने कुछ और कहा :
‘ बाबू मैं तुम्हें बेटा..! कह सकता हूँ…
अगर आपको बुरा न लगे तो…! ‘
बेटा….!
‘ इस चौराहे पर , सब कुछ ठीक लिखा है… ‘
कौन-सा राह, कहाँ जाती है :-
‘ ये दिल्ली की ओर…’
(अपनी लक्ष्य को इंगित करता ),
‘ ये बंबई की ओर जाती है….! ‘
‘ ये चेन्नई की ओर…
और…
‘ ये राह कलकत्ता की ओर जाती है…! ‘
लेकिन…
तुम्हें ही तय करना है कि…
किस ओर ( राह ) जाना है…!
आगे तुम्हें…
और भी कई चौराहे मिलेगा…
जहां…
कुछ भी नहीं, लिखा रहेगा….!
बस तेरा एक हौसला, उम्मीद…,
और…
नेक इरादा ही ” लक्ष्य-पथ ” पर साथ रहेगा…!
फिर…
दुनिया तूझे एक सफल राही..
और राहगीर कहेगा…!
बेटा…..!!
मैं चलता हूँ…..
अपना ख्याल रखना…!
एक सुंदर विकल्प चुन लेना…
एक अच्छा राही-राहगीर बन,
सतत् चलते रहना…!! ”
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