चौमासा विरहा
चैत्र हृदय को चीरता,बढा रहा है पीर।
पिया रहे परदेश में,कैसे पाऊँ धीर।।
बना दिया है बावली,ये जालिम बैशाख।
सुलग रहा है तन बदन,कहीं न कर दे राख।।
जेठ जलाये और भी,लगता लेगा जान।
अब तो आ जाओ सजन, बात हमारी मान।।
मुक्त केश को खोलता,म्लान वेश आषाढ़।
सजल नयन में भर रहा,प्रणय पीर का बाढ़।।
सावन सखी सहोदरी,बहे अश्रु की धार।
सिसकी होठों पर दबी,पी-पी करे पुकार।।
टीस बढ़ाया घाव में,भादो काली रात।
बैरी बादल बीजुरी,करें बहुत आघात।।
आश्विन आकुलता भरे,कहीं नहीं आराम।
राह विकल मन देखता,बना पीर का धाम।।
कार्तिक की काया कनक,कण-कण भरे उजास।
बिरहण बेकल बावली,बेबस बहुत उदास।।
अगहन अवगुंठित अगन, अंग अंग अंगार।
सुध-बुध अपनी खो रही,विरह व्यथा की भार।।
पौष पिया परदेसिया,दियो बिछोड़ा रोग।
सकल पदारथ तुच्छ है,ऐसा लगा वियोग।।
कटे नहीं कटता पिया,तुम बिन ठिठुरा माघ।
तापमान जितना गिरा, उतना लगता बाघ।।
फागुन फेंटे फागुआ,मन हो गया अधीर।
विरहण के हिस्से नहीं,आता रंग-अबीर।
दिवस -दिवस बढ़ता गया, बीत गया हर माह।
मगर नहीं मन से गया, प्रियवर तेरी चाह।।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली