चोट अपनों की
सोने ने पुछा एक दिन लोहे से ,
तू चोट लगने पर इतना चिल्लाता क्यूं है ?
जबकि सुनार मुझे भी तो ,
हतौडे से ही चोट मारता है l
इतना सुनना था कि
लोहे का मुख मलीन हो गया ,
मामला अत्यंत संगीन हो गया ,
दुनिया भर का दर्द सारा ,
उसकी आँखों में समा गया l
साथ ही साथ लोहे के आगे ,
एक अंधेरा सा छा गया l
बड़े हीं प्यार से उसने ,
सोने को समझाया ,
मैं इसलिए देता हूँ दुहायी ,
ज़ब कोई मेरा ही अपना ,
भाई मुझसे है टकराता ,
तो मेरा दिल भी है चिल्लाता ,
दुनिया भर के सितमों को ,
क्योंकि सहा जा सकता है,
पर अपनों के दिये घावों को ,
कभी भरा नहीं जा सकता l
यह कह कर लोहा ,
दर्द से आहें भरने लगा ,
और सोना भी नि : शब्द ,
लोहे की बातों पर
अविरल विचार करने लगा l
लेखक – मनोरंजन कुमार श्रीवास्तव
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