“चेहरे गाँवो के”
चेहरे गाँवों के हैं बदले
जन-मन में स्वारथ का पहरा,
हुई नदारद शर्म-हया अब
अलग दिखे गाँवों का चेहरा।
प्रकृति वादियों में था विचरण,
दिखे न अब वह कहीं आचरण।
भार लगें मेहमान आजकल,
अपनेपन का हुआ ज्यों क्षरण।।
अपने-अपने में सब रत् अब,
हुआ भाव नफ़रत का गहरा।
चेहरे गाँवों के हैं बदले
जन-मन में स्वारथ का पहरा।।
बरगद तरु के नीचे खेलना,
मुन्नी के डम-डम का बजना।
कहीं दिखायी देता न अब,
पेड़ों पर सावन का झुलना।।
रमे पश्चिमी रँग में अब सब
प्रेम भाव दिखता अब ठहरा,
चेहरे गाँवों के हैं बदले
जन-मन में स्वारथ का पहरा।।
हलधर की खुशियों सब गायब,
उचित दाम मिलता न जो अब
विसरे सब अब माँ तुलसी को
हुआ रुपैया जो उनको रब।
पहले जैसी बात न दीखे
दिखता मौसम अब ख़ुद बहरा,
चेहरे गाँवों के हैं बदले
जन-मन में स्वारथ का पहरा।।
*प्रशांत शर्मा ‘सरल’