चेहरे गाँव के……
चेहरे गाँव के ऐसे हैं लगने लगे,
जैसे सेहरे दुल्हन बिन उतरने लगे ।…
अब कहाँ सभ्यता की दरक़ार है,
नैया गाँव की देखो मझधार है ।
जबसे भोले मुखौटे सुबकने लगे,
जैसे पहरे नृपहिं बिन दुबकने लगे ।….
मान-अपमान का अब कहाँ भान है,
कर्म का भी नहीं ढंग से ज्ञान है ।
जबसे आपस में ही लोग लड़ने लगे,
जैसे बहरे नयन बिन भटकने लगे ।…..
अंजान