चेतन वार्तालाप
तेरे वक्त पर किसका पहरा हुआ,तू क्यों इस पल में जकड़ा हुआ?
न जान सका जो तू अब तक ,जा खोज तू , क्यों है सहमा हुआ?
हो रहा है सब कुछ तेरे अंदर,
अनुभव कर तू यह , स्पंदन।
ना समझ प्रलय का खेल हुआ,
तुझमें ही सब कुछ विलय हुआ।
तू है भीतर और बाहर भी ,
अब फेंक तू, भ्रम की चादर भी।
ज्ञान चक्षु को खोल जरा ,
है प्रभात तेरे, चौखट पर खड़ा ।
किस ओर मारता तू मस्तक?
क्यों है तेरे भीतर , कशमकश?
क्यों दूर तू खुद से खड़ा हुआ, अब जा भी, क्यों है तू अड़ा हुआ?
न जान सका जो तू अबतक, जा खोज उसे, तू क्यों सहमा हुआ?
क्या आती न तुझको वह भाषा,
जो भाव को अपने बांध सकें?
मन में उठ रहे तरंगों की,
गति भी तू पहचान सके?
किंतु एक ध्वनि तुझसे प्रतिदिन,
प्रतिध्वनि बनकर, टकराती है,
आभास तुझे करवाती है,
पल-पल वह, यही दोहराती है।
है किस दुनिया की, तलाश तुझे?
किस क्षण की है, आस तुझे?
क्यों मिला नहीं अब तक वह तुझे, जो तुझमें ही है, गड़ा हुआ
न जान सका जो तू अब तक, जा खोज उसे, तू क्यों सहमा हुआ?
✍️ ज्योति