चूल्हे पर रोटी बनाती माँ
चूल्हे पर रोटी बनाती माँ,
कुओ से पानी भरती माँ ।
एक हाथ मे मुझको सम्भाले ,
सिर पर पानी की मटकी रखती माँ ।
सर पर रख घास के दो बण्डल
मुझे गौद में ले लेती मेरी माँ ।
गाँव का वो परिवेश जँहा बिजली तो सपना होती थी।
कड़ी दोपहरी में तब तक हम को पंखा करती माँ ।।
जब खाने को अन्न न था हम तो मस्ती से रोटी खाते थे।
तब फोड़ प्याज को कल की रोटी खाती मेरी माँ ।।
मुझको अब तक याद नही की माँ ने थप्पड़ मारा हो।
लेकिन अक्सर इधर उधर से थप्पड़ खाती मेरी माँ ।
मैं छोटा था,समय बड़ा संस्कारी था।
दो गज के घूंघट में सब कुछ करती मेरी माँ ।।
सुन्दरता की मूरत थी ,मधुबाला सी लगती थी।
जब ‘जीमने’ जाना होता,काजू की कतली खाना
ऐसा कहती मेरी माँ ।।
अपने बेटो की तो छोडो, अपनी ननद देवरो को नहलाती मेरी माँ ।
उम्र बड़ी बालों मे सफेदी आने लगी।
हमारे घर की धूरि हैं अब थोड़ी थोडी बूढ़ी मेरी माँ ।।
बिक जाये हम बाजार में,मोल चुका न पायेंगे।
क्या दू मैं मेरी माँ को,भगवान से ऊपर मेरी माँ ।।