चुप्पी!
माँ चुप रही, एकदम चुप,
जब खाना पकाते वक़्त जल गई थी,
तब भी चुप ही रही,
जब कपड़े सुखाते धूप में झुलस गई थी,
चुप्पी तब भी थी उनके होठों पे,
जब पूरे घर की सफ़ाई अकेले की थी,
या जब २० लोगों के लिए,
चूल्हे पे अकेले खाना पकाई थी।
सब से पहले सुबह उठ,
सबके लिए सब काम करती है,
पर ध्यान रखती है कि शोर ना हो,
कहीं किसी की सुबह की नींद ना टूटे।
माँ जानती है किसको क्या चाहिए,
शायद इसलिए कभी गलती नहीं होती,
या फिर काम में इतना प्यार लगाती है,
कि गलत होने का अवसर ही ना बचे,
सबकी पसंद का ख़्याल चुप-चाप रखती है,
बदले में कभी उम्मीद भी नहीं रखती है।
माँ आज भी चुप ही है,
जब बेटे को बिगाड़ने का दोष लग रहा है,
या फिर बेटी के हक़ के लिए लड़ने का,
दोषी माना जा रहा है।
माँ तब भी चुप ही तो थी,
जब बिना गलती के पिताजी ने ग़ुस्सा किया था,
और जब बेटे के इंतज़ार में रात भर जगी थी,
या बेटी को आगे बढ़ाने के लिए ताने सुने थे,
और ससुराल में माँ-बाप के लिए कड़वे शब्द,
सुनकर ख़ाली पेट बस सो गई थी,
बेटी के ससुराल वालों के ताने सुन कर भी,
एकदम चुप सब सुन लेती रही,
एक शब्द तक नहीं मुँह से निकलती है।
माँ! क्यों चुप थी तुम इतना,
ये कैसी संस्कार की पोटली थमा गई,
जैसे तू चुप थी, वैसे मैं भी मौन हो गई,
काश कि तू इतनी संयमी ना होती,
ना होती इतनी तेरी सहन शक्ति,
तो आज मेरी भी आवाज़ होती बुलंद,
मैं भी अपने पहचान के लिए लड़ती।
फिर लगता है तू सही ही तो बता गई,
लड़ना वहीं चाहिए, बोलना वहीं चाहिए,
जहाँ हो उचित सम्मान और आदर सही,
और फिर अपने कर्मों से अपनी पहचान,
एक अलग अवश्य ही तू बना गई।