चुपी
लिखता बहुत कम हूँ,
मैं जज़्बात दबा लेता हूँ
रिश्तों को निभाने के लिये,
ख़ुद को मिटा देता हूँ,
सोचता मैं जिस आग में जला हूँ,
उसमें मेरे अपनें ना जले,
मिटा कर अपनी ख्वाहिशों को,
अपनों से रिश्तें निभा लेता हूँ,
दर्द कैसा होता है मैं जानता हूँ,
मेरे अपनें ना सहे चुप होता हूँ,
ये कमज़ोरी नहीं ताक़त है मेरी,
जो अपनों के लिये मरता हूँ,
लिखता हूँ मैं बहुत कम,
क्योंकि अपनों के लिये जीता हूँ।।
मुकेश पाटोदिया”सुर”