“चिन्ता”
.
चिन्ता है मुझे
उन खेत खलियानों की
सूने मकानों की
उजड़ी चौपालों की
खाक उड़ती गालों की
दरकती हवेलियों की
शान्त नोहरों की
पटते जोहडों की
जहां कभी मेला लगता था
ढ़ोल संग ताशा बजता था
चौपालों में राजनीति का रंग चढ़ता था
वोट की राजनीति का खेल खिलता था
हुक्के की गड़गड़ाहट में
सरकारें बनती और गिरती थी
रहट की आवाज में शहनाई बजती थी
दुल्हन की तरहा हर-एक खेत
सजता था
नोहरों में से गाय भैंसों के
रम्भाने भी आवाज सुनती थी
शाम सवेरे दूध की महक से
गलियां महकती थी
अब सब वीरान हैं
लगता है शमशान है
गाँव के गांव पलायन कर गये
जाकर शहरों में बस गये
पैसे की खनक की हवस में
रोबोट बन गये
खुले मकानों को छोड़
कंकरीट के जंगल में खो गये
जमीन को पाट – पाट
बन्द पिंजरे हो गये
अब ये हाल है
पंछी आजाद हैं
मुर्गा जाली लगवा इन्सा बेहाल है
इन्सान कब तक ये सह पायेगा
कभी ना कभी ऊब जायेगा
लगता है फिर नया सवेरा आयेगा
गांव की हवेलियाँ जगमगायेगा |
– शकुन्तला अग्रवाल, जयपुर