#चिंतन-
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■ हरियाली तीज : एक लुप्तप्रायः लोकपर्व
【प्रणय प्रभात】
आज श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया यानि तीज है। जिसे हरीतिमा व समृद्धि के प्रतीक ”हरियाली तीज” के रूप में जाना जाता है। रंग-रंगीले राजस्थान की बहुरंगीय संस्कृति व इंद्रधनुषी परम्पराओं के गर्भ से उपजा एक लोकपर्व, जिसे सावन की फुहारों और बहारी बयारों का दुलार और भी मनभावन बनाता है।
धार्मिक व पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सावन की सुहानी तीज एक पखवाड़े तक चलने वाले झूला (हिंडोला) उट्सव का श्रीगणेश है। जिसका समापन भाद्रपद माह की कजरिया तीज पर होता है। इस एक पक्ष में प्रभु श्री कृष्ण अपनी आदिशक्ति राधा रानी के साथ झूले का आनंद लेते थे। आज से अगले 15 दिवस तक भी लेंगे। देवालयों में काष्ठ-निर्मित व सवर्ण-रजत मंडित झूले आज से सज जाएंगे। कलात्मक झूलों में प्रिया जू के साथ विराजित वृंदावन-बिहारी श्रंगारित व अलंकृत छवि में भक्तों को पावन दर्शन देंगे।
इसी परिपाटी के अनुसार गांवों में वृक्ष की शाखाओं पर झूले डालने का विधान रहा है। अब लगभग लुप्त हो चुके यह दृश्य बीते कल में अत्यंत मनोरम होते थे। जब किशोरी बालिकाएं, युवतियां व महिलाएं सामूहिक रूप से सावन के गीत गाते हुए झूला झूलती थीं। मेघ-मल्हार के कर्णप्रिय समवेत स्वर चारों दिशाओं से अनुगुंजित होते थे। नव-वधुओं का उल्लास यौवन पर होता था। पारंपरिक परिधानों व अलंकारों से विभूषित नई-नवेली सुहागिनें अपने चेहरों की चमक से षोडस श्रंगार को मात देती प्रतीत होती थीं।
अब कहां गांव और कहां आम, कदम्ब व पीपल आदि के छतनार वृक्ष। कहां रस्सी के झूले व उन पर पींगें भरतीं नारियां। अब कहां मल्हार की मदमाती तानें व सुरीली धुनों से सजे सावन के गीत। सौभाग्य के प्रतीक लाख के चूड़े व लहरिया वाली साड़ी अवश्य प्रचलन में है। यह अलग बात है कि पार्लर वाली ब्यूटी उस दिव्य आभा से बहुत दूर है, जिसे “दमक” कहते थे। कुल मिला कर कथित विकास व आधुनिकता ने इस लोक-पर्व के तमाम रंगों व शील का हरण कर लिया है।
मातृशक्ति चाहे तो इस लोकोत्सव को एक बार फिर थोड़ा-बहुत गौरव और वैभव लौटा सकती हैं। धर्म-संस्कृति व कला के क्षेत्र में सक्रिय संगठन व संस्थाएं भी इस दिशा में सकारात्मक सोच के साथ रचनात्मक प्रयास करें, तो यह लोकरंग नई पीढ़ी को सरसता के साथ हस्तांतरित किया जा सकता है। उस पीढ़ी को, जिसे दुनिया मुट्ठी में देने का दम्भ भरने वाली मोबाइल संस्कृति ने संकीर्णता की चारदीवारी में समेट दिया है। उस अघोषित क़ैद में, जहां खुशी का मतलब मौज-मस्ती व खुली छूट है। जहां उमंग व उल्लास नाम की कोई चीज़ बाक़ी नहीं। बहरहाल, सभी को इस पर्व की अनंत बधाई। जय राम जी की।।
●सम्पादक●
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