चाॅंद
चाहने से भला चाॅंद कब हुस्न के जुड़े में सजता है
अबोध मन चाॅंद की परछाईं को भी अपना समझता है
शाम के मुहाने जब दिन सूरज से बिछड़ता है
चाॅंद आसमां के आंगन में सितारों संग उतरता है
इक चाॅंद टहले आंगन में इक चाॅंद पलकों पे ख्वाब बुने
इस चाॅंद के चाॅंद मारी में हर रात मेरा जरा बहकता है
~ सिद्धार्थ