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25 May 2017 · 1 min read

चाह

चाह

मेरे ह्रदय का हिमालय
बार बार उठ खड़ा होता है
वह फैल जाना चाहता है
निरन्तर विस्तार पाते
गगन की तरह
वह मिलना चाहता है
हर मन से,हर कण से
तांकि जान सके वह
उस अनाम सत्ता को
जो सब का विधाता है
कौन-सी जंजीरे
उसे चलने नहीं देती
कौन-सी सीमाएं
उसे खुलने नहीं देती
जैसे खुलता है गुलाब
जैसे चमकता है चांद
जैसी फैलती है लहर
जैसे बहती है धार
जैसे चलता है पवन
जैसे उगता है. अरुण
फैलाता अग जग प्रकाश।

Language: Hindi
610 Views
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