चाह
चाह
मेरे ह्रदय का हिमालय
बार बार उठ खड़ा होता है
वह फैल जाना चाहता है
निरन्तर विस्तार पाते
गगन की तरह
वह मिलना चाहता है
हर मन से,हर कण से
तांकि जान सके वह
उस अनाम सत्ता को
जो सब का विधाता है
कौन-सी जंजीरे
उसे चलने नहीं देती
कौन-सी सीमाएं
उसे खुलने नहीं देती
जैसे खुलता है गुलाब
जैसे चमकता है चांद
जैसी फैलती है लहर
जैसे बहती है धार
जैसे चलता है पवन
जैसे उगता है. अरुण
फैलाता अग जग प्रकाश।