“चाह”
चाह पर, वो, इन्द्र धनुषी, रँग चढ़ा देँ,
मौन-भावों को, सरसता से, सजा दें।
है युवा कलियों को, उनसे, ईर्ष्या क्यों,
चाँद सी आभा, कभी मुझको दिखा देँ।
भ्रमर भी सब,राह क्यों,तकते हैं उनकी,
रागिनी सी लय, कभी मुझको सुना देँ।
है भले, व्यवहार, यूँ, शालीन उनका,
रीत पर वो, प्रीत की, कुछ तो निभा देँ।
व्यूह विस्तृत, वर्जनाओं का, चतुर्दिश,
आके सम्मुख, वो कभी “आशा” बँधा देँ।
कर उठें सँवाद, उनसे, शब्द, बरबस,
गीत पढ़ मेरा, कभी तो, मुस्कुरा देँ..!
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