चाह
चाह
अ दोस्त ज़रा हाथ बढ़ा ,
जीने की चाह है ।
आसमाँ थोड़ा झुक जाओ,
तुम्हें छूने की चाह है ।
हवा ज़रा प्रवाह तेज़ कर ,
तेरे संग उड़ने की चाह है ।
राहों बाँहें फैलाओ ,
मुसाफ़िर हूँ चलते रहने की चाह है ।
अ धरती माँ छूने दो चरण,
तुमसा दानी बनने की चाह है ।
समुंदर दो थोड़ा सा रास्ता ,
तुम्हारी गहराइयों को जीवन में उतारने की चाह है ।
अ ज्ञान उतरो आत्मा में ,
जागरूकता की चाह है ।
अ घमंड दूर ही रहना ,
तुम्हें मिटाने की चाह है ।
घृणा ना कभी तू आना निकट,
तुझसे ना कभी मिलने की चाह है ।
अ बचपन फिर गले लगाओ,
तुमसे कभी न बिछड़ने की चाह है ।
ख़ौफ़ कहीं जा ओझल हो जा ,
तुझसे स्वप्न में भी न मिलने की चाह है ।
अ पुष्प यूँ ही खिले रहना,
तुम्हें निहारते रहने की चाह है ।
ममता तुम आँचल में मेरे भरी रहना ,
तुम्हें खुद से अधिक प्यारों पर बरसाने की चाह है ।
उम्मीद सदा जगी रहना,
तुम्हें ज़िंदा रखने की चाह है।
उत्साह तुम जीवन से कभी न जाना,
तुम्हें मन में भरा रखने की चाह है ।
भावनाओं मेरी सदा मासूम रहना,
तुममें सदा पवित्रता की चाह है ।
अ मन तू विचलित न होना कभी,
तुझे शांत रखने की चाह है ।
मुस्कान मेरी तुम फीकी न पड़ना,
तुम्हें लबों पर सजाये रखने की चाह है ।
ज्ञान की नदियों बहती रहना,
बहुत कुछ सीखने की चाह है ।
कर्मों मेरे पाप से दूर ही रहना,
तुममें निश्छलता की चाह है ।
हे प्रभु ! तुम सदैव रहना आसपास,
हर पल तुम्हारे दर्शन की चाह है ।
इंदु नांदल
जकारता
इंडोनेशिया