चाह थी आप से प्रेम मिलता रहे, पर यहांँ जो मिला वह अलौकिक रहा
चाह थी आप से प्रेम मिलता रहे, पर यहांँ जो मिला वह अलौकिक रहा।
आपने दी जगह मध्य अन्तस् मुझे,
मन मयुरी लगी नाचने वेग से।
माथ टीका व अक्षत लगा जिस घड़ी,
आपका हो गया मैं इसी नेग से।
कर्ण- भू पे बरसते रहे स्वर मधुर,
भावना- भाव सबकुछ सु-भौतिक रहा।
चाह थी आप से प्रेम मिलता रहे, पर यहांँ जो मिला वह अलौकिक रहा।।
आप स्वागत में पलकें बिछाए खड़े,
देखकर दृश्य चक्षु सजल हो गये।
भाव से जिस तरह बांह फैला मिले,
प्रस्फुटित शब्द सारे ग़ज़ल हो गये।
दिव्यता से परिपूर्ण व्यवहार में,
सद्य अनुभूत सब पारलौकिक रहा।
चाह थी आप से प्रेम मिलता रहे, पर यहांँ जो मिला वह अलौकिक रहा।।
मान- सम्मान देकर सभा मध्य में,
इक अकिञ्चन को कुन्दन बनाया गया।
खार सम जो कभी था गमकता रहे,
इस लिए आज चंदन बनाया गया।
मान प्राप्तव्य दुष्कर हमारे लिए,
आपके द्वार पर आनुषंगिक रहा।
चाह थी आप से प्रेम मिलता रहे, पर यहांँ जो मिला वह अलौकिक रहा।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’