चाहत या चाह
किसी की चाह से बोलो ,कभी होता भलापाया।
सभी की चाह होती है ,यही जग की सदा पाया।
मगर फिर चाह भी रखना फ़क़त कितना जरूरी है।
बिना इस चाह के कोई कहाँ कुछ भी तो कर पाया।
रखे चाहत सभी नेकी की ये चाहते तो सब ही है।
मगर नेकी का हिस्सा भी कहाँ चाहत से मिल पाया।
कहीं पर चाह होती है ,निहित स्वार्थों में लिपटी सी।
जहाँ पर चाह से लगता सदा अपनो को पनपाया।
कहीं पर चाह ने बढ़कर ,निकाली राह पानी मे।
भला जिस चाह से मधु ने , जमाना सहज बन पाया।
मगर चाहत तो चाहत है ,अलग होती है सबकी ही।
लगे चाहत वही अच्छी , मुनाफा जिससे हो पाया।
सभी छोड़ो जी चाहत को ,भला क्या चाह रखने से।
करो बस काम सब मन से , यही चाहत से मैं पाया।
कलम घिसाई