चाहत मेरी
लत लग गई मुझे
तुझे पाने की
चाहत मेरी
तेरी
स्पर्श की अनुभूति
करा दो ज़रा
हुस्न हसीन की
मुकद्दर
चाहता हर कोई
पाने की उसे
दिन-ए-बारात में
आँखों के पलकों
देख आँसू में
खुद को विलीन कर
प्रेम के घूंट
एक बून्द ही सही
भर दो मेरे
जीवन धार में
तन्हा में
मैं ठहरा
डूब जाऊँ
तेरी यादों के
समंदर में
होठों के चुम्बन के
पथ में गुमनाम
हो चलूँ मैं
लफ्ज भी
अनकहे हैं
गुनगुना के
भर देता हूँ
होठों के प्यास
बुझा नहीं पाता
फिर से
मिलने की चाहत
तड़पन के
कहर मन में
उफान भर देती मुझे
फिर तेरी
सौन्दर्य वदन में
स्वयं के
ख़्वाबों के जंजीर
जकड़ लेती हूँ
चाहता एक वक्त
तुमसे मिल
संतुष्टि पा सकूँ मैं
पर क्या !
मन अफसोस
कर बैठता
रह जाता दूर
डर दुनिया से
फिर दिन भी
नीरस, उदासीन
छा जाती मुझे
तेरी आवाज
समधुरम् – समधुरम्
सुनने नहीं मिलता
खोजता चहुंओर
पर क्या !
तेरी समक्ष
जाके सुनू शून्य में
तेरी आँखों को
देख सौन्दर्य
ख़ूबसूरती को
मैं देखता रहूँ
पंखुड़ियों-सी कोमल
वदन को बांह में
कसकर लूँ पकड़
सदा ही तेरे
प्रेम के रंग में
स्वयं को बहा दूँ
क्या बताऊँ अब !
जाने का मन नहीं
करता
बात रही मेरे
मुझे तो हमेशा
विरह की अग्नि
प्रेम से बहुत दूर
अकेला-सी
जीवन में
जा फँसी
फिर से एकान्त
भरती प्रेम का
लिहाज इस
यौवन का
फिर फूट पड़ती हूँ
कागज के पन्नों पर
स्वयं के इस को
बिखेर देती हूँ
इच्छा भी होती
उसे दबा के
शब्द संचार
भावों में उगल पड़ती हूँ
जिसे प्रेम मिला
वो उसकी लुफ्त
उठाओ
जी-जी भर के
मैं चला फिर से
वहीं विरह अग्नि में
बारम्बार
आऊंगा एक दिन
फिर फूट पड़ूगा
वहीं पुराने
कागज के पन्नों पे
और अन्त में
अहा प्रेम !
तुम बहुत कठिन हो।