चाहत/ प्रेम
चाहत नहीं है, तो है राहत बहुत ।
यहां प्रेम कम, है अदावत बहुत ।।
लुटाते रहो प्रेम, सब पर हमेशा।
घृणा घोलने की, है आदत बहुत।।
रहे घूम घर घर, काम प्रेमी बहुत।
बन बहरूपिया, कालनेमी बहुत।।
नही सत्य इनमे, न करुणा है बसती।
जिसम नोचने वाले, हैं कामी बहुत।।
अगर सत का जीवन, है करुणा बहुत।
तो है प्रेम प्राकृत, न काम चाहत बहुत।।
नहीं है जो दामन में, सच प्रेम करुणा।
समझ लो जी ‘संजय’, हो आहत बहुत।।
जय श्री राम