*चाल*
चाल
अजब खेल है
तेरे ऊपर वाले
अजब है तेरे मेल
तेरी लीला तू ही जाने
तू ही जाने कब किसका हो मेल।
इंसान तोबस यूं ही ‘मैं’ रहता
मेरा मेरा करता रहता
वो न जाने तेरी एक भी साजिश
कहां तक है तेरी आजमाइश।
कोई क्या जाने कितने तेरे रंग रूप
कितने रंग बिखेरे तूने धरती पर
कितने रंगों को बेरंग कर डाला
तेरी माया क्या कोई जान सका है।
जो यह कहता
मैं’ यह कर दूं मैं’ वह कर दूं
उसकी भी बदल डाले
तू चालो की भी चाल
हर ‘शै’ पर भारी तेरी इक चाल।
सबकी फितरत तू पहचाने
अच्छे बुरे की तुझको पहचान
फिर भी इंसान कितना बेईमान
थकने लगा हूं मैं इस धरती पर
देख अपनों का पराया सा व्यवहार।
हरमिंदर कौर ,अमरोहा