चाल ढाल बदले नहीं, विषधर, गिरगिट, श्वान।
विधा- दोहागजल
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द्वेष जलन की भावना, रखता जो इंसान।
पग-पग पर मिलता उसे, तिरस्कार अपमान।
माटी की इस देह में, क्षणभंगुर है सांस,
यद्यपि सब इस बात की, दिखलाते हैं शान।
चलता जो बदराह पर, करता उल्टे काम,
जब प्रतिफल मिलता उसे, बन जाता अंजान।
जो गैरों खातिर नहीं, रखता आदर भाव,
उसके मुखड़े पर नहीं, आती है मुस्कान।
लाख जतन कर ‘सूर्य’ तू, पाएगा बस हार,
चाल-ढाल बदले नहीं, विषधर, गिरगिट, श्वान।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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