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5 Sep 2020 · 1 min read

ग़ज़ल- चालाकियाँ इंसान की

ग़ज़ल- चालाकियाँ इंसान की
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■
हम समझ पाते नहीं चालाकियाँ इंसान की
हो गयी बंजर जमीं अब दोस्तों ईमान की

लाख सिक्के ले के आओ मामला गंभीर है
इस तरह कुछ डॉक्टर कीमत लगाते जान की

अनसुनी करते हैं बातें जो अगर निर्धन कहे
गौर से सुनते मगर सब लोग क्यों धनवान की

देखकर भूखा उसे मुझको तजुर्बा हो गया
होशियारी छीन लेती रोटियाँ नादान की

गाँव में भूखा न सोता अजनबी बंदा मगर
देख लेना तुम शहर में बेबसी अनजान की

ठोकरें ‘आकाश’ मैं खाता रहा हूँ रात-दिन
कद्र दुनिया में कहाँ है फालतू सामान की

– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 03/09/2020

2 Likes · 2 Comments · 536 Views
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