चार दीवारों में कैद
‘चार दीवारों में कैद रहे j
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चार दीवारों में कैद रहे
रंगीन सपनों की ऊंची उड़ान लिये
बस जीते रहे अपनी ही खातिर , एक अदना सा जहान लिये।
जिंदगी को समेट लिया , गुमशुदा अंधेरे कमरों में ‘
और सोचते रहे जिंदगी, हम मशहूर क्यों न हुये
एक डरपाते खयाल की सरगोशी,
खामोश, हैरान सी
कहीं किसी उलझन में डूबी
लडखडाती रूह परेशान सी पूछ रही थी , अब तलक की जिंदगी का हिसाब
मेरा अक्स रूबरू खड़ा था ,
कठोर, क्रूर खयाल लिये
उसकी नजरें घूर रही थी , सुलगत M से सवाल िये
नही था कोई जवाब उसके तीखे प्रश्नों का
क्या दिया दीवार से परे निकलकरG
किसी और की बेहतरी के लिए ?
किस खाते के पन्ने टटोलकर
क्या पाया अब खोज रहे हो ?
हम दो हमारे दो की दुनिया के तंग लिबास में’
हर दम पैबस्त रहे
दरवाजे के बाहर लटकी मामूली सी तख्ती पर
वो नाम जो तुमने खुदवा रखा है
उसी को निहारते खोये मदमस्त रहे ।
बगलें झांक रहा था मैं , निष्ठुर अक्स i की सख्ती पर
उसका प्रवचन जारी था, मैं निरुत्तर, अवाक , खड़ा था गूंगा
सोचा इसको दो टूक अब प्रत्युत्तर दूंगा
किंतु वह निर्बाध जारी था, लगता पूरी तैयारी में था ,
मेरी जिव्हा जड़ , तालू से चिपकी डरी डरी
मामूली शब्दों में , बात कह गया खरी खरी
वक्त की हवा का एक झोंका,
जिस दिन, रफ्तार से आएगा
हल्की शख्सियत की तख्ती का वो नाम
बवंडर में गुम हो जाएगा।
कोसेगी तब रूह तुम्हारी, बेबस, बेचारी ,बेकार
अतीत तुम्हारे सम्मुख होगा ,
निर्मोही थाल में सज्जित कर जीवन के सारे दुर्व्यवहार
पश्चाताप की ऋतु भी ,तब होगी अंतिम कगार पर
बाट जोहती मिल जायेगी, सुर्ख लाल अंगार पर
भस्म हो जायेंगे स्वप्न सब तुम्हारे,
झुलस जायेगी नाम की तख्ती
क्यों तुमको कोई स्मरण करेगा
चार अंधेरी दीवारों में कैद हस्ती
ना जिला, नगर, न कोई बस्ती ।
यहीं तुम्हारा संचय होगा, एक गुमनाम परिचय होगा ।
रचयिता
शेखर देशमुख
J 1104, अंतरिक्ष गोल्फ व्यू 2, सेक्टर 78
नोएडा (UP)