चार अँगुलियाँ भी हैं काफी एकलव्य के वास्ते
स्वयं को गुरु शरण में करके समर्पित चल दिया
अपना अंगूठा दक्षिणा में करके अर्पित चल दिया
एकलव्य महान वीरों में शिरोमणि वीर था
त्यागना सर्वस्व उसका स्वभाव था वो फक़ीर था
मन में उसके अनंत प्रश्नों की लगी थी श्रृंखला
क्यों नहीं भायी भला गुरु द्रोण को मेरी कला
गर्व होना चाहिए था कि मैं उनका शिष्य था
वर्तमान थे वो मगर स्वर्णिम मैं उनका भविष्य था
कुछ समझ न पाऊँ निर्णय ये अनूठा क्यों लिया
माँग लेते प्राण ही केवल अँगूठा क्यों लिया
कोई धनुर्धर हो न अर्जुन से बड़ा स्वीकार है
किन्तु अर्जित ज्ञान करना सबका ये अधिकार है
यूँ किसी षड्यंत्र से आएगी रंगत तो नहीं
इस तरह प्रण पूर्ण करना न्यायसंगत तो नहीं
श्रेष्ठ अर्जुन को बनाना था तो सिखलाते उसे
योग्यता को सिद्ध करके सामने लाते उसे
हर घड़ी स्मरण जिनको मन में हर इक पल किया
मैने गुरु माना उन्हें पर फिर भी मुझसे छल किया
मात्र मूर्ति की दक्षिणा इतनी बड़ी लेकर गए
देना था आशीष लेकिन श्राप वो देकर गए
सोचते होंगे गए हैं वो मनोबल तोड़कर
कर गए गलती मगर इन अँगुलियों को छोड़कर
मन में हो विश्वास तो होते हैं अनगिन रास्ते
चार अँगुलियाँ ही हैं काफी एकलव्य के वास्ते
क्यों न दी विद्या मुझे मैं किस तरह से अछूत हूँ
आदिवासी हूँ मगर राजा का मैं भी सपूत हूँ
एक दिन बनकर चुनौती सामने फिर आऊँगा
मैं धनुर्धर बन के अर्जुन से बड़ा दिखलाऊँगा
धन्य हैं अमरत्व का गुरुदेव देकर वर गए
एकलव्य का नाम सबके हृदय पे अंकित कर गए
दो मुझे आशीष गुरुवर पूरी हो फिर साधना
गुरु चरण की आज फिर मैं कर रहा हूँ वंदना
हिरण्यधनु का पुत्र तुमको कर रहा शत् शत् नमन
धृष्टद्युम्न हूँ ढीठ हूँ धरती पे लाऊँगा गगन
आत्मा हूँ शक्तिशाली मैं कोई काया नहीं
जीतना सीखा है मुझको हारना आया नहीं
राजकुल के कुँवर मेरी योग्यता से डर गए
सर्वश्रेष्ठ हूँ मैं ही योद्धा आप साबित कर गए
भर गया अंतर में जो अज्ञान मेरा छीन लो
हे प्रभु कर दो कृपा अभिमान मेरा छीन लो