चाय
चाय को होंठों से लगा रखा था,
हमने शाम का एक लम्हा छुपा रखा था;
जिस लम्हे में शोर फ़ीका हो जाता था,
उसी गली में जो तुमने बता रखा था;
दोपहर की कुछ यादें सजा रखी थी,
साँझ की धुँधलाई सी तस्वीरों में;
उनमें सुबह की खुशबू थी,
वो बगीचा था जो तुमने खिला रखा था।
आज़ाद फ़लक की रातें थी बंद कमरों की आँखों में,
कुछ हल्की नींद भी थी धुंधले-धुंधले उन ख्वाबों में;
अंधेरा भी तो कुछ कहना चाहता होगा कभी,
कहने नहीं देता था वो चिराग जो तुमने जला रखा था;
उसी गली में जो तुमने बता रखा था।।
~ राजीव दत्ता ‘ घुमंतू ‘