“चापलूस”
“चापलूस”
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इसकी पूछो मत, कोई हाल;
ये मनुष्य होता, बड़ा कमाल।
इसका खास होता नही,नाम;
बस होता वह थोड़ा बदनाम।
काम करता, जिसके खातिर;
वो भी होता, बड़ा ही शातिर।
इसे ही, वो सदा आगे करता;
यही,उसके लिए अब लड़ता।
पहचानना , इसे बहुत जरूरी;
पहचान इसकी है, जी-हजूरी।
नजराना से , ये खुश हो जाता;
मालिक का फेंका सब उठाता।
रहता , कुर्सी व पॉवर के पीछे,
इसे , धनी या ठेकेदार ही सींचे।
बहुत होता, ये सदा मिलनसार;
किंतु होता ये, एक बड़ा गद्दार।
लालच कूट-कूट कर भरा होता;
अपनों के विरुद्ध ये खड़ा होता।
सबसे इसकी दोस्ती होती मगर,
किसी का दोस्त नहीं जरा होता।
बेईमान भी होता ये , इस कदर;
अपनों का ही कर दे कभी मडर।
इस प्राणी को रखिए सदा ही दूर,
गलती करने को ये , करे मजबूर।
खुद नौ के नब्बे भी, खर्च करा दे;
आपके सब, दुख-दर्द को बढ़ा दे।
क्षमता होती इसमें, बहुत अपार;
मिले ये हर ऑफिस , हर बाजार।
भरता नहीं कभी भी, इसका पेट;
मिलता, सबसे ज्यादा अपने देश।
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स्वरचित सह मौलिक
….✍️पंकज “कर्ण”
………. कटिहार।।