चांद
चांद से जब मैंने पूछा
बता तो तेरा मज़हब है क्या
मुस्कुरा कर वो बोला
मुझे भी इंसान समझा है क्या
ये मजहब तो इंसानों की फितरत है
और मुझे देखने का अपना अपना नजरिया
रमजान में दिख जाऊं तो ईद हो जाये
मुझे देख करवा चौथ मनाती हैं सजनिया
आशिकों की आशिकी में कभी
चौदहवीं का चांद और आफताब बन जाऊं
कवियों की कविता में और
शायरों की ग़ज़लों में सज जाऊँ
मजहबी नही हूँ मैं इसीलिए दूर
बादलों की गोद में रहता हूँ
किसी भी मज़हब का हो जनाब
बच्चों का चंदा मामा कहलाता हूँ
मज़हब पूछ कर मुझसे मेरे दोस्त
मजहबी तुम मुझको मत बनाओ
मुझे दूर गगन में ही रहने दो भाई
मेरा है मेरा है कह के झगड़ा मत बढ़ाओ
वीर कुमार जैन ‘अकेला’