चांद बिना
चांद बिना क्यों ये रात अधूरी रह जाती है
सूरज बिन क्यों प्रभात अधूरी रह जाती है
क्यों मचलते फिरते हैं मेरे ख्वाब दर ब दर
नींद बिना क्यों ये सौगात, अधूरी रह जाती है।
लफ्ज़ ख़ामोश से क्यों ,जम गये है लबों पर
बिन शब्दों के क्यों,बात अधूरी रह जाती है।
मिला था ग़र वो तो मिल भी गया होता मुझे
बिखरे हो जज्बात,तब बात अधूरी रह जाती है
साथ कोई नहीं , बस काफिला है यादों का
अपनों जब न हो साथ ,तो बात अधूरी रह जाती है।
सुरिंदर कौर