चाँद, तू गैर है
चाँद, तू गैर है
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चाँद, तू गैर है, जानता हूँ…
दिल के ख़्वाबों को सीने में पालता हूँ।
एक नज़र तो देखेगा मुझको,
तमाम उम्र इस जद्दोजेहद में काटता हूँ।
चाँद, तू गैर है, ये जानता हूँ…।
चाहत नहीं है पास आने को तेरे,
चाहत नहीं पा जाने को तुझको,
इक आस में ज़िंदगी गुज़ारता हूँ,
कभी हँस कर, बिहँस कर,
खिलखिलाते हुए,
मुस्कुरा कर एक नजर तो देखेगा मुझको,
चाँद, तू गैर है, ये जानता हूँ…।
इन आँखों की बातें याद कर-कर के
जहन्नुम में मिटने को जानता हूँ,
चाँद, बस एक नज़र ही तो माँगता हूँ।
मासूमियत भरी कपोलों की नरमी,
ज़रीफ़ों की ख़ातिरन ताकता हूँ।
ख़ता बस यही है…,
गर जुर्म है ये,
तो लाज़िमी है,
ख़तावार बन तुझको पुकारता हूँ
चाँद, तू गैर है, ये जानता हूँ…।
तुझे देखकर, आहत होता हूँ मैं,
फिर भी तमन्नाएँ साज़ता हूँ,
ये, रास आती नहीं, ज़माने को,
माँग ऐसी मैं, क्यूँ माँगता हूँ?
रुसवाई में पल-पल तड़पता हुआ,
रात, तारों को गिन-गिन काटता हूँ,
चाँद, तू गैर है, ये जानता हूँ…।
दिल के ख़्वाबों को सीने में पालता हूँ।
…“निश्छल”