चाँद की आभा
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शीघ्रता से सूरज भागा ज्यों, निकलकर नीड़ से
खोला किवाड़ और आभा लिए दौड़ा झट से
टूटकर दो लड़ियाँ, किरणों की
गिर गईं जमीन पर छन्न से।
अकुलाहट में सूर्य-नयन देख न सके
भागा जा रहा पथ पर अपने
लिए कर्तव्यपरायण वह सपने
भागे जा रहा, भागे जा रहा, भागे जा रहा था
लेकिन,
अरे!… यह क्या?
किरणें,
मेरी दो किरणें,
हाय! कहाँ गिर गईं?
…लगा सोचने।
विवश हो, धाराहीन हो गया।
कभी उकताता, कभी मद्धिम, कभी रंगीन हो गया।
उग्र भी, रुष्ट भी, कमनीय कांति भी बिखेरी,
पर, नभ पथ पर उड़ते पंछी की आँख न डोली।
संपाती की कहानी जेहन में घूम रही थी,
कोई खग, कोई विहग साहस न कर सका
पूछने को, सूरज की रुष्टता।
उधर सूरज लाचार, व्यवहार और आचार से
आग भरे नैनों में, मंद होता जा रहा था,
शनैः-शनैः सागर में ओझल होने को प्रस्थान कर रहा था।
व्यवहार का कौशल चाँद ही सिखाता,
निशा अंधेरी होती, मगर वह उजाला बिखेरता,
फिर भी चाँद और निशा का तालमेल,
नित नया रंग चढ़ाता।
दिनभर के झुलसे चेहरे,
झुलसे हुए रुपहले,
ठंडी साँसें लेते, आभाहीन चाँद को देखते,
क्योंकि, व्यवहार का कौशल चाँद ही सिखाता।
यात्रा आरंभ किया चाँद ने ज्यों ही,
कराह सुनी… मीठी ध्वनियों में,
नीचे देखा, तो दो किरणें…
अश्रु पूर्ण नेत्र चाँद के।
पलकों पर बिठा लिया किरणों को,
एक रंग में तन्मय हो,
विलीन हो गईं दोनों किरणें चाँद में।
अब तो, … हाँ, अब तो
चाँद भी वैभवशाली हो गया,
आभा विहीन, अब आभा का स्वामी हो गया।
पाप नहीं था चाँद के मन में,
लेकिन कलुषित हो चला था,
“आखिर ये अपनी किरण तो नहीं हैं न…?”
पर, किरणों के अश्रुपूरित दृगों ने चाँद को विचलित कर दिया,
और वह सदा-सर्वदा के लिए किरणों को अपना साया देने को राजी हो गया।
अतएव, वे किरणें चाँद की आभा बन गईं।
…“निश्छल”