च़ंद इज़हार
जाने कब से ढूँढ रहा हूँ इंसान इन लोगों की भीड़ में , जो अब तक गुम़श़ुदा है।
उसने मेरे दिल को सिर्फ दऱिया समझा , मेरे दिल में लहराते सम़ंदर को ना जान सका सका।
द़र्दे इश्क़ की दवा भी इश्क़ है , इश्क़ का मारा आश़िक अब तक ये ना जान सका।
जुनूऩ ए इश्क़ में ज़िंदगी की राह भूल चुके हैं , कहां से चले थे कहां आ पहुंचे हैं ये भूल गए हैं।
सोचता हूं उसने मेरा बुरा क्यों किया आदमी तो वो बुरा न था , फिर ये सोच कर स़ब्र कर लेता हूं के शायद उसका व़क्त बुरा था।
हर सुबह का आग़ाज़ क़ुदरत का इज़हार है ,
के ताऱीकियाँ बीत गईं अब रोशनी का सैलाब़ है।