चश्मों के शीशों से
चश्मों के शीशों से
देख रहा हूँ गुज़रा वक्त
कुछ धुंधलाते साये
अनसुनी बातें
मुस्कुराते पल
अनकही चाहें
चश्मों के शीशों से
देख रहा हूँ गुज़रा वक्त।
चमकता सवेरा
खिली खिली सी धूप
पेड़ों की घनी छाओं तले
गुनगुनाते सपने
चान्द तारों का मेला
निशा के आंगन में
अलबेला पंछी
हृदय के प्रांगण में
चश्मों के शीशों से
देख रहा हूँ गुज़रा वक्त।
आवारा पल
जिनका कोई मोल न था
मनस वीणा के स्वर
जिनका कोई बोल न था
पैसा,रुतबा सब अनजाने थे
शोहरत दौलत सब बेगाने थे
जीवन सरिता
बहती थी निर्झर
चश्मों के शीशों से
देख रहा हूँ गुज़रा वक्त।
विपिन