चश्मा
धीरे-धीरे आ गई,जीवन की वो शाम।
बिन चश्मा होता नहीं,मुझ से कोई काम।।
मुझ से कोई काम,न होता लिखना पढ़ना।
उमर नजर का दोष,धुंधला सब कुछ दिखना।
हर्ष और संघर्ष,चले जीवन के तीरे।
मगर हुआ स्पष्ट,नजरिया धीरे-धीरे।।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली
धीरे-धीरे आ गई,जीवन की वो शाम।
बिन चश्मा होता नहीं,मुझ से कोई काम।।
मुझ से कोई काम,न होता लिखना पढ़ना।
उमर नजर का दोष,धुंधला सब कुछ दिखना।
हर्ष और संघर्ष,चले जीवन के तीरे।
मगर हुआ स्पष्ट,नजरिया धीरे-धीरे।।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली