चल रहा वो
चल रहा वो निडर होकर
भागता सरपट सड़क पर
एक पल रुकता नहीं वो
है न रंजिश और दहशत
है उठा अरुणाभ मस्तक !
देखता चिरकाल परिवर्तन
मगर रुकता नहीं है ,
सामने पर्वत खड़ा पर वह
कभी झुकता नहीं है ।
बीत रही घड़ियां लेकिन
हर पल नवीन है ,
बदल गया सब मगर नहीं
बदला प्रवीण है ,
अड़ा रहा बाधाओं के आगे
पर्वत बन!
खड़ा रहा पैरों पर टिककर ,
किया नहीं आराम ठिठक कर ,
खड़ा रहा तैयार निरंतर ,
बदल गया कितना युगांतर !
जल थल नहीं मगर वह बहता
अविचल ,निर्मल ,
नहीं तुम्हारा या मेरा कुछ
वश है उस पर ।
किया उसे वश में जिसने वह
सब कुछ पाया ,
बना सिकंदर वही जगत ने
शीश झुकाया!