चल रहा एक दंगा है
लड़ मरेंगे आपस में सब, चल रहा एक दंगा है,
बहेगा खूूून पानी की तरह , चल रहा एक दंगा है।
न दोस्त यार, न आस पड़ोसी, किसीसे मोह रखना है
ग़ैर जात का भिखारी न बचे , जो सड़क पे बैठा नंगा है।
न घरवालों की याद आए, न चैन सुकून की सोचूूूं मैं,
मुझे भूख प्यास की खबर नहीं, मैंने हाथ लहू से रंगा है।
कुछ और अधर्मी मार लूं , फिर ग़ुनाह सारे धोने हैं,
पर कहाँ जाके डुबकी लगाऊँ, खून से भरी गंगा है।
लाशों के ऊपर लाशों का, ढेर लगा हैं राहों में,
आवाम यहाँ मामूली हैं, जैसे कीट पतंगा हैं।
मेरा मुल्क सैंतालीस से जल रहा,ये आग किसने लगायी है,
सियासत का ऐसा बाज़ार लगा, लाशों से लिपटा तिरंगा है।
दिल्ली तक बात पहुँचती और दिल्ली में ही दब जाती ,
कल मेरी जगह कोई और कहेगा, चल रहा एक दंगा है।
-जॉनी अहमद “क़ैस”