चल खुलकर जी,-
मत जी डर डर के यूं ज़िंदगी इस कदर मेरे दोस्त !
इसे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बना ले
, जब भी मौका मिले अहसास पिरोने का चल ए मन कोई गीत गुनगुनालेे ।
पहले बन्दी थी चार दीवारी में , बड़ी मसक्कत की यहां तक आने में,
किस्मत से ही गुलों को महकाने का मौका मिला है।
चल छोड़ ,खौफ अधिकारियों का ,इसे तू अपनी आदत बना ले।
जब भी जी चाहे नन्हे मुन्ने बच्चों संग खुलकर खिलखिला लेे।
रोज़ आवाजाही का तुझे होगा न कुछ असर ,बस तू जी अपने हिस्से की ज़िंदगी
जब जरूरत हो एक मुक्कमल सहारे की तो एक बार दिल से उस ईश्वर को पुकार लेे।
जब तू अपनी मेहनत से इल्म का चिराग रोशन कर देगी ।
फिर देखना कि तेरी सिर्फ एक उम्मीद ही तेरी कश्ती पार कर देगी।
कभी लगे कि ज़िन्दगी निराश हो गई है।
और उम्मीद की किरण धुंध में खो गई है।
तो निसंकोच होकर अपनी ,” रेखा “को आवाज़ लगाना कि सुन ए दोस्त।