चलो आज खुद को आजमाते हैं
चलो आज खुद को आजमाते हैं ..
धाराओं के विपरीत निकल जाते हैं
इस रास्ते के उसे पर जाकर
मंजिल को अपना बनाते हैं
जिंदगी के कोरे कागज की नाजुक
बुनियादों में थोड़े से सुर मिलाते हैं
कभी बारिश में लोग दमन बचाते हैं
कभी बाहें फैलाकर खुद भीग जाते हैं
कभी अलाब से बचकर निकल जाते हैं
कभी शरद मौसम में अलाब जलाते हैं
कवि अंधेरों में नदिया बहाते हैं
कभी धूप से वो समुद्र सुखाते हैं
किसी जर्जर जमीन को आज फिर
सींचा सींचकर उपजाऊ बनाते हैं
किसी की याद में आंसू बहाते हैं
किसी का हाथ रास्ते में छोड़ जाते हैं
✍️कवि दीपक सरल