“चलन”
विकलता शान्त बैठी है
प्रतीक्षाएँ सो गयीं मीठी नींद
हृदय ने भर लिया असीम सुख….
शरद ने जाते -जाते,
जो क्षोभ दिया था पतझर का,
उबार लिया गाछ ने
स्वयं को उससे…।
डालियाँ पत्रों के विछोह से
सँभल रही हैं,
रितु परिवर्तन की अभ्यस्त हो रही हैं
वसन्त पुनः भर देगा ठूँठ को हरितिमा से…।
वही पुराने पात मिलेंगे धरा से,
उर्वरा बन खिलेंगे पुष्प के वेश…।
यही तो चलन सृष्टि का
कुछ छूटे तो कुछ मिल जाये
कुछ टूटे तो कुछ खिल जाये….।