चलने का संकल्प मन में है ठाना
चलने का संकल्प मन में है ठाना
नही फर्क पड़ता किधर है जमाना ।
झोली मे कुछ तो लेकर के आना
कई व्यंग्य शर है चले आ रहे पर
उनसे है खुद को बचना बचाना।
कहीं न कहीं तो मंजिल है मेरी
नही है कठिन अब पहचान पाना ।
कठिन राह को कोई जाकर बताएँ
नही पग रुकेगे नहीं अब थकेगे
चलने का संकल्प मन में है ठाना।
कुछ भी मिले पर नहीं हाथ खाली
अब तो न केवल समय है गंवाना
हिम्मत है जबतक बुलंद हौसले है
कुछ तो है निश्चित झोली में आना ।
चलने का संकल्प मन में है ठाना।
( विन्ध्यप्रकाश मिश्र विप्र )