चलना है मगर, संभलकर…!
” चल उठ जीवन पथ के राही…
कुछ कदम बढ़ा,
भोर हो चला है कर ले कुछ हलचल…!
उदित किरण की लाली (रवि किरण ) संग…
बहती शीतल बयार संग…!
आ कर कुछ नई पहल…
ओ राही चल , मगर आहिस्ता आहिस्ता चल…!
राहों पर कोई भटकाव न हो…
चल कुछ थम के चल…!
राहों पर अपनी नज़रें टीका के चल…!!
मोड़ हो राहों में….
कोई बात नहीं….!
तंग हो कोई ग़म न कर…
लेकिन..
कदम अपनी फिसले न…
ऐसी कोई कोशिश न कर…! ”
” राहें दुर्गम हों, पथ चाहे अगम हों…
उसे सुगम करता चल…!
राहों में कुछ मुसिबतें आयेंगे…
तूझे कुछ भरमायेंगें…!
उसे सरलता से…
हल करता चल…!
आज और कल की बात न कर…
हो सके तो अभी चलने की…
कुछ कर पहल…!
चाल में तेरी, मौजों की रवानी हो…!
बढ़ते कदमों की पांवों में…
हौसले की कोई निशानी हो…!
रमता चल या फिर…
मचलता चल, ओ राही….!
मगर तू थोड़ा संयम से…
संभल के चलता चल…!
” पवन की चाल में…
कहीं बहक न जाना…!
फूलों की महक में…
कहीं बिखर न जाना…!
घटाओं की बारिश में…
भीग जाना तुम,
मगर राहों पर…
फिसलने की कोशिश न करना…!
हो सके राह में कहीं…
दुर्गम पहाड़ी मिलेंगे…!
अदम्य हौसला साथ ले कर चल…
टेढ़े-मेढ़े या ऊंचे-नीचे,
कुछ ढाल मिलेंगे…!
शक्त पांवों के निशान ,
तू गढ़ता चल…
फूलों की पथ में,
अनचाहे कांटों के कुछ जाल भी मिलेंगे…
मगर तू ज़रा सतर्क हो कर चल…!
तुम्हारे कदमों के ये चाप…
है तुम्हारी आकृति के अद्वितीय छाप…!
होगा ये, एक अनमोल निशान…
तेरे कोई अनुगामी के लिए…!
तू चल अथक…
तू बन प्रतीक एक हम राही के लिए…!
आज और कल की…
तू बात न कर…
हो सके तो अभी चल…!
एक-एक कदम चल, कुछ थम के चल…
मगर तू संभल कर चल…!
एक-एक कदम चल, कुछ थम के चल…
मगर तू ज़रा संभल कर चल…! ”
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