चलते-चलते
चलते चलते
देख सुन बड़ा कष्ट हो रहा है,
संविधान पुर्ज़ा पुर्ज़ा नष्ट हो रहा है।
सरकार चिकना घड़ा हो गई है,
और विपक्ष मात्र एक धड़ा हो गई है।
देश की अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है,
और सरकार उसे विकास बता रही है।
सरकारी सम्पत्ति निजी हाथों में बेची जा रही है,
कंपनियाँ मालिक बन मुनाफ़ा कमा रही हैं।
कर रहे हैं जात्त पात, फ़िरक़ा मज़हब में बँटवारा,
और मज़बूती से बंद कर देते हैं मुद्दों का पिटारा।
हर कोई परेशान है, है मुश्किलों की भरमार,
अपनी मुश्किल छोड़ कर सब का है उपचार।
ढूँढे से भी ना मिले, कहाँ गए वो लोग,
नाड़ी देख पकड़ते थे पलभर में जो रोग।
अपने पथ का ज्ञान नहीं दूसरों को राह दिखाते हैं,
बीमारी की पहचान नहीं पर दवाई ज़रूर बताते हैं।