चक्रव्यूह
एक वीर अभिमन्यु लड़ा था ,
अपनों के ही बीच निशस्त्र ।
चक्रव्यूह रचा था उसके,
अपनों ने ही ,टूट गए सब अस्त्र ।
आज भी कई भाग्य हीन ,
निष्कपट और सरल अभिमन्यु ,
अपनों द्वारा ही छले जाते है ।
नहीं उठा पाते कोई ऐसे में कोई शस्त्र ,
भावना के दबाव में आ जाते है ।
और अपने शत्रुओं द्वारा ही
चक्रव्यूह में फंसाए जाते है।
जिनसे निकलने का नहीं कोई उपाय ,
तन तो क्या स्वतंत्र होगा ऐसे में,
आत्मा ही स्वतंत्र हो जाए तो बड़ी बात है ।
वरना जीवन भर अपनो द्वारा ,
रचाए गए कुचक्र में ही फंसा रहता है ।
मनुष्य जीवन स्वयं किसी ,
चक्रव्यूह से कम है क्या !
अपने मन द्वारा उत्पन्न अभिलाषाओं ,
कामनाओं और आकक्षाओं ,
के चक्रव्यूह में फंसा रहता है उम्र भर ।
अब आप क्या कहेंगे ?
मनुष्य मनुष्य का शत्रु है ,
या उसका मन सबसे बड़ा शत्रु हैं?