चक्रव्यूह और मैं !
अब भी कुछ बिगड़ा नहीं हैं,
इतना समय गुज़रा नहीं हैं
पता नहीं की हार होगी,
या फिर होगी विजय;
अब समक्ष दिखता यही बस;
चक्रव्यूह और मैं !
मारा जाऊंगा अभिमन्युवत्,
या कृष्ण के सुदर्शन सा चीर दूंगा
इस धधकती ज्वाला में ,
मैं किन कर्मों का नीर दूंगा;
सोचता हूँ दिन रात, अब बस यह
हैं समक्ष दिखता यही अब,
चक्रव्यूह और मैं !
कोसूंगा असमय हाथ छोड़ने वाले को,
या समझदार हो जाऊंगा
इस मीठी-छलिया दुनियां से,
कहो कैसे पार मैं पाउँगा?
ये रात हुई ‘पक्षपाती’
जाने कब होगी सुबह
अब समक्ष दिखता यही बस;
चक्रव्यूह और मैं !
– © नीरज चौहान