चंद प्रीति
चंद प्रीति
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इन आँखों में प्रेयसि मुझको,
चाँद नज़र क्यूँ आता है?
बियाबान तेरी ज़ुल्फ़ों में,
रोड़े क्यों अटकाता है?
सूर्यमुखी तुझको कहूँगा,
चंद्र नाम नहिं लेना है।
चंद छल, के कारणवश सुमुखि,
रवि से नया सवेरा है।
छूता रहता सुरभित समीर,
अलकावलियों को तेरे।
लटके से ये काकुल तेरे,
मुझको बाहों में घेरें।
ऐसी तेरी प्रीति काकली,
सम्मोहित हूँ मैं जैसे।
प्रकट कर, सुंदरी ये तेरी,
प्रीति चाँद से है कैसे?
…“निश्छल”