चंद एहसासात
कहते हैं इरादे बुलंद हों ,और मशक्क़त का
जज़्बा-ए-जुनून हो तो मंज़िल हासिल होती है ,
ग़र तक़दीर साथ न दे , तो तदबीर से खड़े किए महल भी खंडहर में तब्द़ील हो जाते हैं ,
नेक इरादे से उठाए कदम भी बदनीयत के
मोरिद -ए- इल्ज़ाम हो जाते हैं ,
दूसरों के हमदर्द बनना भी कभी खुद के लिए सरदर्द का बा’इस बन जाते है ,
इंसानियत तो इंसानों के साथ होती है ,
पर हैवानों के हुजूम में इंसानियत आंसू बनकर रह जाती है ,
जुल्म की इंतिहा में बेबस ज़िंदगी ,
जज़्ब के सन्नाटे और असीर -ए- अ’ज़ाब के अंधेरे में गुम हो जाती है ,
जिस्म की कैद में छटपटाती रुह ,
आजादी की दुआ मांगती है ,
क्यूँ कि उसे फरिश्तों के मुखौटे लिए हर तरफ जिन्नात नज़र आते हैं ,
जो उसे जीने और बार-बार ज़ुल्म सहने के लिए मजबूर किए जाते हैं ,