चंद असआर कलमकारों के नाम
ज़माना जब जुबाँ वो जिस्म पे पहरे बिठाता है,
बगावत कर गुजरने को कलम तब बोल उठती है.
सियासत और सियासतदारों की अब बात क्या कीजै,
बदलती रंग दुनियाँ की जब सराफत डोल उठती है.
जिन्हें माली समझ माँझी समझ पतवार को सौंपा,
उन्हीं की रहनुमाई जब तिजारत खोल उठती है.
गुलिस्ताँ जिसने सींचा हो खुदी के खूँ से गुल्ची को,
उसी माली तड़पन बन कलम सब बोल उठती है.