घूँघट घटाओं के
चंचल हवाओं के, घूँघट घटाओं के
आँचल लहरते हैं, जैसे फिज़ाओं के
कलियाँ जो खिल–खिल जातीं
गुलशन को हैं महकातीं
डाली पे बैठी कोयल
उल्फ़त के गीत गाती
फूल की पँखुरियों पर
भँवरों ने बोल बोले
पत्तों के संग बूटे
मस्ती में आके डोले
अदा से अदाओं के, झूमती लताओं के
रस्ते ठहरते हैं, जैसे दिशाओं के
गालियाँ जो सज–सज जातीं
रौशन हों वो इठलातीं
रातों की चमकी सोनल
प्रीतम को है बुलाती
छत पर जो बैठी मैना
राही से जोड़े नैना
बादल गगन में बहके
चंदन पवन में महके
निदा की सदाओं के, अँगड़ाई बाँहों के
लरज़ते हैं होंठ जैसे, तरसती निगाहों के
–कुंवर सर्वेंद्र विक्रम सिंह✍🏻
★स्वरचित रचना
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