चंचल धूप “
चंचल धूप ”
तपती दोपहरी की ना कहूं मैं
प्रभात की किरणों का है जिक्र
ना ये गरम ना ही है ये शीतल
मचलाए जाए री ये चंचल धूप,
खिड़की के झरोखों से ताकती
दरवाजों तले से देती दस्तक
ताजगी समेटे चले बल खाती
मन को भाए री शर्मीली धूप,
तड़के तड़के यह दर्श दिखाए
पूनिया के हृदय को महकाए
राज दौड़कर मीनू को बुलाए
आ गई री तेरी बुदबुदाती धूप।
Dr.Meenu Poonia